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Wednesday, March 2, 2011

ग़ज़ल 4

मजबूर हालात और दिल-इ-नादान से लड़ना सीखा था
ग़म-ए-सागर में उसने मेरे साथ तैरना सीखा था

बड़े शौक से मुझे अपना शगिर्द बोलता है वो
जिसने कभी पढ़कर मेरी किताबें बोलना सीखा था

गिर पड़ता था कभी तो कभी थाम लेता था मेरा हाथ
राह-ए-ज़िन्दगी में उसने मेरी उंगली पकड़कर चलना सीखा था

यूँ तो खिलते थे गुल और पतझड़ भी आते थे मौसम में
सुनकर मेरे अल्फाज़ उसने ज़िन्दगी से मुहब्बत करना सीखा था

उसकी याद अब दिल-ए-गुस्ताख से जाती नहीं शैल
मेरे साथ मिलकर जिसने ख्वाब देखना सीखा था

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