Pages

Sunday, May 15, 2011

ग़ज़ल 7

हर तरफ घनघोर अँधेरा ही अँधेरा है
इन काली रातों से बहुत दूर सवेरा है

जिन पेड़ों पे कभी घोसले थे पंछियों के
उनकी डालियों पे वीरानियों का बसेरा है

बरसते थे बादल उनके आने की ख़ुशी में
अब तो दिन रात इस आसमान पे उनका डेरा है

बिखर गए हैं सब हवा के एक झोंके से
रिश्ते थे या भ्रम बस समझ का फेरा है

इन घटाओं से आँधियों  का गुमां होता है
बचाकर के रखना तिनको का घर तेरा है

काश उसकी यादों को मिटा पाना मुमकिन होता शैल
वो शक्स जो मेरे ख़्वाबों का होकर भी न मेरा है

No comments:

Post a Comment